पढ़ा लिखा कोई किशोर
माँ-बाप नहीं घर-बार छोड़
वह पहुँच गया अनजान शहर
और देने लगा दस्तक दर-दर
लेकिन,
मन में यह भाव लिए
कुछ काम करूं,कुछ और पढूं –
घुमने लगा वह इधर-उधर
देने लगा दस्तक दर-दर
पर मिला न कोई काम उसे
फुटपाथों पर सो जाता था
पर पेट नहीं भर पाता था
एक दिन होटल के पास गया
जूठी थाली को चाट गया-
मालिक बोला रे सुनो इधर
बरतन धो टेबुल साफ़ करो
वह लगा जतन से सब करने
इस बीच आ गया -एक ग्राहक
अन्तर्मन को गुननेवाला
रे दीनों को सुननेवाला
हँसकर उसने पूछा किशोर से बाबू !
क्या है नाम तुम्हारा ?
बोलो तो –
सुनकर वह मौन तपस्वी सा
अन्तर्मन में कुछ सोचा रहा
क्या दूँ जवाब सिर नोच रहा
इसमें क्षण-दो-क्षण बीता
फिर आँखे मूंद कहा –
कुत्ता !
(कवि – डॉ० भूपेन्द्र मधेपुरी )