शायद,
सोचा था उसने,
कि मृत्युदंड की सजा सुन
हार मान लूँगा मैं,
झुकी गर्दन उसकी सजा स्वीकार
तंग काल-कोठरी में
तिल-तिल,घुट-घुट मरूँगा मैं,
समझा नहीं कि हार से भी
रार ठान लूँगा मैं,
पर जीते जी उससे कभी
हार नहीं मानूँगा मैं |
हराने को उन्हें लेने होंगे
कई-कई जन्म,
क्योंकि,
गिर-गिरकर उठने,
और मर-मर कर जीने का
मैं जानता हूँ इल्म |
शातिर राजनीति के गन्दे खेल में
वक्त के हाथों पराजित हूँ,
यह मानता हूँ मैं,
लेकिन,
वक्त की करवटों को भी
बखूबी पहचानता हूँ मैं |
संकल्प कि —
षड्यंत्रों पर पुरुषार्थ की जीत की
एक नई इबारत लिखूँगा मैं |
लाठी-गोली,जेल-मौत से
न डरा,न कभी डरूँगा मैं,
छल-छदम्-तिकड़मों और साजिशों से
अन्तिम साँस तक लडूँगा मैं,
मरते-मरते भी,
ऐसा कुछ करूँगा मैं,
कि मरकर भी
गुमनाम नहीँ मरूँगा मैं |
(लेखक – पूर्व सांसद आनंद मोहन रचित /कैम्प सेंट्रल जेल,भागलपुर :9 नवम्बर 2007 -कैद में आज़ाद कलम से )