हुंकार …..
मौत और सलाखों से कब तलक डराओगे,
गाजियों के सामने आंधियां नही अड़ती |
शाहीन के सामने परवाज कहा टिकता है,
नाहर की गर्जन पर बिल्लियाँ नहीं रूकती |
मर्द निकल पड़ता है,जब भी अपनी मंजिल को
कड़क भूल राहों में बिजलियाँ कहीं छुपती |
सुरमई सुबह जब सुर्ख आफ़ताब उगता है,
रात जितनी काली हो कालिमा नहीं टिकती |
झुठे जाल-फ़ांस में कितने दिन उलझाओगे ,
कि काठ की हड्डियाँ ,दुबारा नहीं चढती |
झुठ कहाँ सांच की आंच झेल पाएगा ,
रेत के समन्दर में कश्तियाँ नहीँ चलती |
क्या तलाश करते हो इन सुलगती आँखों में ,
जहाँ छिटकती चिंगारी ,आँसू वहां कहाँ टिकती |
सींखचो में डाल तुम मजबूर नहीं कर सकते,
कि मर्दों के ‘लोगश’ में मजबूरियाँ नहीं होतीं |
हथकड़ी से तुम मुझको किसलिए डराते हो,
शेर की कलाई में चूड़ियाँ नहीं होतीं |
जब चुनौती भेजोगे,हम जरुर आएँगे,
पांव में हवाओं के बेडियां नहीं होतीं |
(श्रोत – सेंट्रल जेल,भागलपुर (पूर्व सांसद आनंद मोहन )